गर्विष्ठ ब्राह्मणांना श्रीगुरुंनी कथन केलेली चारही वेदांसंबंधीची सखोल माहिती,
श्रीगुरुचरित्र अध्याय २६ मध्ये श्रीगुरुचरित्रकारांनी ओवीबद्ध केलेली
आहे.
ओवी क्रमांक २ ते ५
नारायणाने
‘मुनि’ अवतार घेऊन वेदांचा विस्तार
केला. वेदांना वेगवेगळे (विभाग)
केल्याने ‘नारायणामुनी’ला
‘व्यास’ नाव मिळाले. नारायणाचा अवतार असलेला मुनि ‘व्यास’ नावाने प्रसिद्ध झाला. व्यासमुनीने वेदविस्तारण्याचे काम पूर्ण केले नाही. वेदांची सर्वसाधारण माहिती व्यासमुनींनी पैल, वैशंपायन, जैमिनी आणि सुमंतु या चार शिष्यांना सांगितली.
ओवी क्रमांक ८ ते २३
ब्रह्मदेवाचे
तिसरे कल्प* चालू असताना, भारद्वाज
ऋषीने शेकडो वर्षे
वेदांचे पठन केले.
[*सृष्टीच्या जन्मानंतरच्या साधारण १२९६ कोटी सौरवर्षे (१कल्प=४३२कोटी सौरवर्षे) कालावधीत भारद्वाज ऋषींनी वेद अभ्यास केला असावा.] भारद्वाज ऋषीने ब्रह्मचर्य पाळून तपचर्येने ब्रह्मदेवाला प्रसन्न केले. अमर्याद असलेले वेद ब्रह्मदेवालाही आत्मसात झाले नाहीत. ब्रह्मदेवाने
भारद्वाज ऋषीला वेदांच्या तीन राशी दाखविल्या. “ह्या वेदांचा अभ्यास
कर”, असे म्हणून तीनही वेदांचे, तिन्ही मंत्रप्रयोग (ऋकमंत्र छंदोबद्ध, यजुर्मंत्र
गद्यबद्ध, साममंत्र गानबद्ध) ब्रह्मदेवाने
भारद्वाज ऋषीला दिले. ऋकमंत्र ह्या छंदोबद्ध मंत्रांचा ‘ऋग्वेद’, यजुर्मंत्र ह्या
गद्यबद्ध मंत्रांचा ‘यर्जुवेद’, साममंत्र ह्या
गानबद्ध मंत्रांचा ‘सामवेद’ अशा मूळ तीन वेदांपासून
तयार झालेला अथर्ववेद - अशा चारही वेदांचा भारद्वाज ऋषीने अभ्यास केला.
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ऋग्वेद विस्तार :-
ओवी क्रमांक २७ ते ३९
व्यासांनी “पैल” शिष्याला
बोलावून ऋग्वेद - मजकूर सांगितला.
श्रीगुरुचरित्र ओवी
क्रमांक ३२ व ३३
गोत्र
|
अत्रि
|
उपवेद
|
आयुर्वेद
|
दैवत
|
ब्रह्मा
|
छंद
|
गायत्री
|
श्रीगुरुचरित्र ओवी
क्रमांक ३३ व ३४
देह
वर्णन
|
श्रीगुरुचरित्र
|
वर्ण (रंग)
|
लाल (रक्त)
|
डोळे
|
कमळाच्या
पानाप्रमाणे
|
मान व गळा
|
रुंद
|
दाढी - मिशा
|
कुरळे केस
|
देह उंची
|
दोन हात (हात=कोपरापासून
करंगळी पर्यंत) उंच
|
श्रीगुरुचरित्र
ओवी क्रमांक ३५ व ३६
ऋग्वेदाचे
१२ भेद = ७ निर्गुण भेद + गुरुकुलाप्रमाणे ५ भेद पुढीलप्रमाणे
:-
ऋग्वेदाचे निर्गुण
{गुणात्मक फरक नसलेले / अपौरुषेय (परमेश्वर निर्मित)}७ भेद :-
सप्त भेद
अनुक्रमांक
|
श्रीगुरुचरित्र
(निर्गुण अध्ययन भेद)
|
१
|
चर्चा
श्रावका
|
२
|
चर्चक श्रवणिया
|
३
|
पार
|
४
|
क्रम
|
५
|
जटा
|
६
|
शकट
|
७
|
दंड
|
गुरुकुल पद्धतीतून निर्माण झालेल्या ऋग्वेदाचे ५ भेद
अनुक्रमांक
|
ऋग्वेद पंच भेद
|
१
|
‘शाकला’
|
२
|
‘बाष्कला’
|
३
|
‘आश्वालायनी’
|
४
|
‘शांखायनी’
|
५
|
‘मांडूकेया’
|
श्रीगुरुचरित्र
ओवी क्रमांक ४०
श्रीगुरुंनी
गर्विष्ठ ब्राह्मणांना विचारलेली ऋग्वेदाची प्रसिद्ध शाखा ‘शाकल शाखा’ होय. सध्या ऋग्वेदाची फक्त शाकल शाखा अस्तित्वात असून ह्याच शाखेने ऋग्वेदाचा ठेवा अजरामर
केलेला आहे.
शाकल शाखेची लक्षणे :- शाकल्य
ऋषी निर्मित ‘दंड’ पाठाच्या रचनेत ऋचेचे
पुर्वार्ध आणि उत्तरार्ध असे दोन विभाग केलेले आहेत. प्रत्येक
विभागात प्रथम एका ओळीतील पदांचा अनुलोम
करुन त्याच ओळीतील पदांचा विलोम करण्याची सोपी पद्धत वापरली.
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यजुर्वेद विस्तार
श्रीगुरुचरित्र
ओवी क्रमांक ४३ ते ४७
व्यासमुनिंच्या ‘वैशंपायन’
शिष्याने यजुर्वेदाचा अभ्यास केला.
गोत्र
|
भारद्वाज
|
उपवेद
|
धनुर्वेद
|
दैवत
|
रुद्र (शंकर)
|
छंद
|
त्रिष्टुप
|
देह
वर्णन
|
श्रीगुरुचरित्र
|
वर्ण (रंग)
|
सोन्यासारखा रंग
|
डोळे
|
पिवळसर
|
मान व गळा
|
मोठी मान व गोबरे गाल
|
कंबर
|
बारीक
|
देह उंची
|
पांच हात लांब
|
शरीर
|
काळसर तांब्याच्या रंगाचे शरीर
|
व्यक्तिमत्व
|
निश्चयी
|
श्रीगुरुचरित्र ओवी क्रमांक ४८ ते
६८
व्यास मुनि शिष्याला म्हणाले, ”यजुर्वेदाचे शायशीं भेद आहेत.”
{टीप - शायशीं :- जिज्ञासूंनी शब्दार्थ-चर्चा
सदर पहावे.}
यजुर्वेदाच्या ४० भेदांची
नावे पुढीलप्रमाणे
अनुक्रमांक
१
२
३
४
५
६
७
८
९
१०
|
यजुर्वेद भेद
खालील पाचही भेद श्रेष्ठ आहेत.
चरका
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
आह्वरका
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
कठा
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
प्राचकठा
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
कपिष्ठला
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
भेद-खूणा पुढिल प्रमाणे
चारायण
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
वार्तांतवीया
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
श्वेत
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
श्वेताश्वर
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
मैत्रायणी
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
मैत्रायणी
शाखेचे ७ उत्तम भेद पुढीलप्रमाणे : -
१) मानवा, २) दुंदुमा, ३) ऐकया, ४) वाराहा, ५) हारिद्रवा, ६) श्याम,७) श्यामायणी
|
९ भेद
७ भेद
|
११
|
वाजसने (शुक्ल यजुर्वेद शाखा)
वाजसने शाखेचे १८ भेद
पुढीलप्रमाणे :१) वाजसनेय,
२) जाबालिक, ३) बौधेय (विशेष भेद), ४) काण्व,
५) माध्यंदिन,६) शाफेय, ७) तापनीय, ८) कापाल प्रसिद्ध भेद आहे, ९) पौंड्रवत्स प्रसिद्ध भेद आहे,१०) आवटिक श्रेष्ठ भेद आहे, ११) परमावटिक शाश्वत भेद आहे,
१२) पाराशर्य, १३) वैनेय, १४) वैधेय, १५) औधेय असामान्य शाखा आहे,
१६) गालव,१७) बैजव,
१८) कात्यायनी ही विशेष शाखा आहे.
|
१८ भेद
|
१२
|
तैत्तिरीय शाखा
(कृष्ण यजुर्वेद शाखा)
तैत्तिरीय शाखेचे दोन भेद :- ‘औख्या’
व ‘कांडिकेय’ :- भेदाचे अनुक्रमाने पठण करण्याचे
पाच भेद :-
१) ‘आपस्तंबी’:- यज्ञादि कर्म
व आचार सविस्तर सांगणारी मनोहर (मनाचे हरण करणारी), महान
शाखा.
२) ‘बौधायनी’
३) ‘सत्याषाढी’
४) ‘हिरण्यकेशी’
५) ’औखेयी’
|
१ भेद
५ भेद
|
|
||
|
षडंगे (वेदाची
सहा अंगे)
|
|
|
षडंगे = शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद व ज्योतिष
ही वेदांची सहा अंगे
शिक्षा = शिक्षण
कल्प = धर्मविधी सांगणारे वेदांग
व्याकरणिक = व्याकरण = भाषेच्या व्यवहाराचे नियम
करणारे शास्त्र
निरुक्त = एक वेदांग ग्रंथ, वेदांतल्या कठीण शब्दांचा
व्याख्याकोश
छंद = कवितेचे वृत्त
ज्योतिष = ताऱ्यांच्या स्थितीवरून केलेले गणित
|
|
|
उपांगे :- ८ उपांगे
१)
’प्रतिपद’, २) अनुपद’, ३) ‘छंदस’
५) “भाषा’ व ६) ‘धर्म’
७) ‘मीमांसा’ व ‘न्याय’
८) ‘तर्क’
|
|
|
परिशिष्टे :- १८
अठरा परिशिष्ट = यूपलक्षण, छागलक्षण, प्रतिज्ञासूत्र,
अनुवाकाध्याय, चरणव्यूह,श्राद्धसूत्र, शुल्बसूत्र, पार्षदसूत्र, ऋग्यजुःसूत्र,इष्टकापूरण,प्रवराध्याय,उक्थशास्त्र,ऋतुसंख्या, निगम,यज्ञपार्श्व,हौत्रक,प्रसवोत्थान व कूर्मलक्षण
|
|
ओवी क्रमांक ७५ ते ७९
यजुर्वेदाचे मंत्र-ब्राह्मण-संहिता असे ३ भाग (तीन ग्रंथ) आहेत.
{ मंत्र = वेदविभाग, ब्राह्मण = मंत्रविनियोगप्रतिपादक वेदभाग,
संहिता = मंत्रात्मक वेदविभाग }
यजुर्वेदाचे मूळ = संहिता [मंत्रात्मक वेदविभाग]
+ ब्राह्मण [मंत्रविनियोगप्रतिपादक
वेदभाग]
= यज्ञ आदि कर्म
क्रिया
संहिता ७ अष्टकांमध्ये विभागली आहे.
अष्टक* = आठ
विभागांचा समुह ह्या विभागांना ‘प्रश्न’ ही संज्ञा असून
प्रत्येक अष्टकातील प्रश्नांची संख्या ८ नसून वेगवेगळी आहे.
अनुवाक :-
ज्याप्रमाणे काही वाक्यांचा मिळून परिच्छेद
(paragraph) तयार होतो, त्याच प्रमाणे प्रश्नांमधील
मंत्रांच्या समुहाला ‘अनुवाक’ म्हणतात.
काही अनुवाक एका मंत्राचे तर काही अनुवाक अनेक मंत्रांचे असतात.
पन्नासा :-
विविध शब्दांच्या
सुनियोजित बांधणीतून वाक्य तयार होते; त्याचप्रमाणे अनेक पदे
एकत्रित करुन, ‘मंत्र’ तयार होतो.
मंत्रातील पन्नास पदांच्या समुहाला ‘पन्नासा’
म्हणतात. पन्नासा हे केवळ पदांचे मोजमाप आहे.
जिथे पन्नासा पूर्ण होते; तिथे मंत्र पूर्ण होतो,
असे नाही. मंत्रातील पदे वैदिक व्याकरणाच्या नियमांप्रमाणे
जोडून एकाच ओळीत लिहिलेली असतात.
तैत्तरिय यजुर्वेद संहिता ब्राह्मण व आरण्यक ह्या ग्रंथत्रयाचे {ओवी क्रमांक१९४ ते १९६} वर्गीकरण पुढीलप्रमाणे :-
|
प्रश्न
|
अनुवाक
|
पन्नासा
|
दशक
|
संहिता
|
४४
|
६५१
|
२१९८
|
|
ब्राह्मण
|
२८
|
३२०
|
|
१८२३
|
आरण्यक
|
१०
|
२५०
|
|
५८३
|
एकुण
|
८२
|
१२२१
|
२१९८
|
२४०६
|
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प्रश्नाचे नाव = प्रथम अनुवाकामधील प्रथम मंत्रातील प्रथम
पदाचे नाव.
प्रथम अष्टक - ८ प्रश्न [ओवी क्रमांक ८१ ते ९१]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
पन्नासा
पन्नास पदांचा गट
|
पहिला
|
इषेत्वा
|
१४
|
२८
|
दुसरा
|
आपउंदंतु
|
१४
|
३४
|
तिसरा
|
देवस्यत्वा
|
१४
|
३१
|
चौथा
|
आददे
|
४६
|
५४
|
पांचवा
|
देवासुर
|
११
|
५१
|
सहावा
|
संत्वासिंचा
|
१२
|
५१
|
सातवा
|
पाकयज्ञ
|
१३
|
५१
|
आठवा
|
अनुमत्यै
|
२२
|
४२
|
एकुण
|
८ प्रश्न
|
१४६ अनुवाक
|
३४२ पन्नासा
|
दुसरे अष्टक - ६ प्रश्न [ओवी क्रमांक ९२ ते १००]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
पन्नासा
पन्नास पदांचा गट
|
पहिला
|
वायव्य
|
११
|
६५
|
दुसरा
|
प्रजापती – गुहान्
|
१२
|
७१
|
तिसरा
|
आदित्येभ्यः
|
१४
|
५६
|
चौथा
|
देवामानुषी
|
१४
|
४८
|
पांचवा
|
विश्वरूप
|
१२
|
७४
|
सहावा
|
समिधा
|
१२
|
७०
|
एकुण
|
६ प्रश्न
|
७५ अनुवाक
|
३८४ पन्नासा
|
तिसरे
अष्टक - ५ प्रश्न [ओवी क्रमांक १०२ ते १०७ ]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
पन्नासा
पन्नास पदांचा गट
|
पहिला
|
प्रजापतिकाम
|
११
|
४२
|
दुसरा
|
यौवेपवमान
|
११
|
४६
|
तिसरा
|
अग्नेतेजस्वी
|
११
|
३६
|
चौथा
|
विवाएत
|
११
|
४६
|
पांचवा
|
पूर्णापश्चात्
|
११
|
३६
|
एकुण
|
५ प्रश्न
|
५५ अनुवाक
|
२०६ पन्नासा
|
चौथे
अष्टक - ७ प्रश्न [ओवी क्रमांक १०८ ते ११५ ]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
पन्नासा
पन्नास पदांचा गट
|
पहिला
|
युंजान
|
११
|
४६
|
दुसरा
|
विष्णोःक्रमोसि
|
११
|
४८
|
तिसरा
|
अपांत्वेम
|
१३
|
३६
|
चौथा
|
रश्मिरसि
|
१२
|
३७
|
पांचवा
|
नमस्ते रुद्र
|
११
|
२७
|
सहावा
|
अश्मन्नूर्ज
|
९
|
४६
|
सातवा
|
अग्नाविष्णू
|
१५
|
३९
|
एकुण
|
७ प्रश्न
|
८२ अनुवाक
|
२७९
पन्नासा
|
पाचवे अष्टक - ७ प्रश्न [ओवी क्रमांक ११६ ते १२४ ]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
पन्नासा
पन्नास पदांचा गट
|
पहिला
|
सावित्राणि
|
११
|
५९
|
दुसरा
|
विष्णुमुखा
|
१२
|
६४
|
तिसरा
|
उत्सन्न
|
१२
|
४८
|
चौथा
|
देवासुर
|
१२
|
५८
|
पांचवा
|
यदेकेन
|
२४
|
६२
|
सहावा
|
हिरण्यवर्णा
|
२३
|
५४
|
सातवा
|
यो वा आ यथा
|
२६
|
५८
|
एकुण
|
७ प्रश्न
|
१२० अनुवाक
|
४०३ पन्नासा
|
सहावे अष्टक - ६ प्रश्न [ओवी क्रमांक १२५ ते १३२ ]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
पन्नासा
पन्नास पदांचा गट
|
पहिला
|
प्राचीनवंश
|
११
|
७६
|
दुसरा
|
यदुभौ
|
११
|
५९
|
तिसरा
|
चात्वाल
|
११
|
६२
|
चौथा
|
यज्ञेन
|
११
|
५१
|
पांचवा
|
इंद्रोवृत्र
|
११
|
४२
|
सहावा
|
सुवर्गाय
|
११
|
४३
|
एकुण
|
६ प्रश्न
|
६६ अनुवाक
|
३३३ पन्नासा
|
सातवे
अष्टक - ५ प्रश्न [ओवी क्रमांक १३३ ते १३९]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
पन्नासा
पन्नास पदांचा गट
|
पहिला
|
प्रजनन
|
२०
|
५२
|
दुसरा
|
साध्या
|
२०
|
५०
|
तिसरा
|
प्रजवं वा
|
२०
|
४२
|
चौथा
|
बृहस्पतिरकाम
|
२२
|
५३
|
पांचवा
|
गावो वा
|
२५
|
५४
|
एकुण
|
५ प्रश्न
|
१०७ अनुवाक
|
२५१ पन्नासा
|
सप्त अष्टक संहितेचे वर्गीकरण पुढीलप्रमाणे :-
ओवी क्रमांक
|
अष्टक
|
प्रश्न
|
अनुवाक
|
पन्नासा
|
८१ ते ९१
|
प्रथम
|
८
|
१४६
|
३४२
|
९२ ते १००
|
दुसरे
|
६
|
७५
|
३८४
|
१०२ ते १०७
|
तिसरे
|
५
|
५५
|
२०६
|
१०८ ते ११५
|
चौथे
|
७
|
८२
|
२७९
|
११६ ते १२४
|
पाचवे
|
७
|
१२०
|
४०३
|
१२५ ते १३२
|
सहावे
|
६
|
६६
|
३३३
|
१३३ ते १३९
|
सातवे
|
५
|
१०७
|
२५१
|
१४० ते १४१
|
७
|
४४
|
६५१
|
२१९८
|
‘ब्राह्मण’ भाग :-
ब्राह्मण ग्रंथ :-
धर्मशास्त्रांचें
अध्ययन करणाऱ्याला स्तोत्रांचा इतिहास जाणण्यास यजुर्वेदसंहितांकडे ज्याप्रमाणें
धांव घ्यावी लागते, त्याप्रमाणें
त्याला यज्ञयाग व पौरोहित्य यांच्यासंबंधीच्या इतिहासाचें ज्ञान करुन घेण्यास
ब्राह्मण ग्रंथांना अगदीं प्रमाणभूत मानावें लागतें.
ब्राह्मण ह्या शब्दाचा मूळ अर्थ, यज्ञकर्मामधील एखाद्या मुद्दयावरील विद्वान् याज्ञिकाचें विवेचन असा आहे.
ब्राह्मण ह्या शब्दाचा मूळ अर्थ, यज्ञकर्मामधील एखाद्या मुद्दयावरील विद्वान् याज्ञिकाचें विवेचन असा आहे.
प्रथम अष्टक - ८ प्रश्न [ओवी क्रमांक१४३ ते १५३ ]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
दशक
दहा पदांचा गट
|
पहिला
|
ब्रह्मसंधत्त
|
१०
|
८०
|
दुसरा
|
उद्धन्य
[वाजपेय आख्यान कथा]
|
६
|
५०
|
तिसरा
|
देवासुरा
|
१०
|
६५
|
चौथा
|
उभये
|
१०
|
६६
|
पांचवा
|
अग्नेःकृत्तिका
|
१२
|
६२
|
सहावा
|
अनुमत्य
|
१०
|
७५
|
सातवा
|
एतद् – ब्राह्मण’
|
१०
|
६४
|
आठवा
|
वरुणस्य
|
१०
|
३७
|
एकुण
|
८ प्रश्न
|
७८ अनुवाक
|
४९९ दशक
|
दुसरे अष्टक - ८ प्रश्न [ओवी क्रमांक १५४ ते १६३]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
दशक
दहा पदांचा गट
|
पहिला
|
अंगिरस
|
११
|
६०
|
दुसरा
|
प्रजापतिकाम
|
११
|
७३
|
तिसरा
|
ब्रह्मवादिन
|
११
|
५०
|
चौथा
|
जुष्टो
|
८
|
८०
|
पांचवा
|
प्राणोरक्षति
|
८
|
४५
|
सहावा
|
स्वाद्वींत्वा
{ सौत्रामणि}
|
२०
|
८६
|
सातवा
|
त्रिवृता
|
१८
|
६६
|
आठवा
|
पीवोअन्न
|
९
|
७९
|
एकुण
|
८ प्रश्न
|
९६ अनुवाक
|
५३९ दशक
|
तिसरे
अष्टक - १२ प्रश्न [ओवी क्रमांक १६४ ते१७७ ]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
दशक
दहा पदांचा गट
|
पहिला
|
अग्निर्नःपातु
|
६
|
६३
|
दुसरा
|
तृतीयस्य
|
१०
|
८५
|
तिसरा
|
प्रत्युष्टरक्ष
{ ={गुं + गम् + ग्ग }एकत्रित उच्चार}
|
११
|
७९
|
चौथा
|
ब्रह्मणेसि
|
१
|
१९
|
पांचवा
|
सत्य
|
१३
|
२९
|
सहावा
|
अंजंति
|
१५
|
३८
|
सातवा
|
अच्छिद्र
|
१४
|
१३०
|
आठवा
|
अश्वमेध
{सांग्रहण्या}
|
२३
|
९१
|
नववा
|
प्रजापतिः
|
२३
|
८४
|
दहावा
|
संज्ञान
|
११
|
४९
|
अकरावा
|
लोकोसि
|
१०
|
६२
|
बारावा
|
तुभ्य
|
९
|
५६
|
एकुण
|
१२ प्रश्न
|
१४६ अनुवाक
|
७८५ पन्नासा
|
ब्राह्मण भागातील ३ विभाग {ओवी
क्रमांक १४२} वर्गीकरण पुढीलप्रमाणे :-
ओवी क्रमांक
|
अष्टक
|
प्रश्न
|
अनुवाक
|
दशक
|
१७८ ते १७९
|
प्रथम
|
८
|
७८
|
४९९
|
१५४ ते १६३
|
दुसरे
|
८
|
९६
|
५३९
|
१६४ ते१७७
|
तिसरे
|
१२
|
१४६
|
७८५
|
१७८ ते १८०
|
३
|
२८
|
३२०
|
१८२३
|
१* परात्त ब्राह्मण = पर (नंतरचा)
+ आत्त (घेतलेले)
तैत्तिरीय
ब्राह्मण :- हा ब्राह्मण भाग नंतर तैत्तरिय संहितेत
घेतलेला असल्याने तैत्तरिय ब्राह्मण ग्रंथास ‘परात्त’
ब्राह्मण म्हणतात.
परात्त* = जिज्ञासूंनी ‘शब्दार्थ चर्चा’ सदर पहावे.
आरण्यक - १०
प्रश्न [ओवी क्रमांक१८१ ते १९३]
|
|||
प्रश्न क्रमांक
|
प्रश्नाचे नाव
पहिल्या मंत्राचे पहिले पद
|
अनुवाक
एकुण मंत्र संख्या
|
दशक
दहा पदांचा गट
|
पहिला
|
भद्र
|
३२
|
१३०
|
दुसरा
|
स्वाध्याय
|
२०
|
२४
|
तिसरा
|
चित्ती
|
२१
|
५३
|
चौथा
|
मंत्रब्राह्मण
|
४२
|
८५
|
पांचवा
|
श्रेष्ठ
|
१२
|
१०८
|
सहावा
|
पितृमेध
|
१२
|
२७
|
सातवा
|
शिक्षा
|
१२
|
२३
|
आठवा
|
ब्रह्मवल्ली
|
९
|
१४
|
नववा
|
भृगुवल्ली
|
१०
|
१५
|
दहावा
|
नारायण
|
८०
|
१०४
|
एकुण
|
१० प्रश्न
|
२५० अनुवाक
|
५८३ पन्नासा
|
आरण्यक भागातील ३ विभाग {ओवी
क्रमांक १९२ ते १९३} वर्गीकरण पुढिलप्रमाणे :-
ओवी क्रमांक
|
प्रश्न
|
अनुवाक
|
दशक
|
१८१ ते १९३
|
१०
|
२५०
|
५८३
|
तैत्तरिय यजुर्वेद संहिता ब्राह्मण व आरण्यक ह्या ग्रंथत्रयाचे {ओवी क्रमांक१९४ ते १९६} वर्गीकरण पुढीलप्रमाणे :-
प्रश्न
|
अनुवाक
|
पन्नासा
|
दशक
|
८२
|
१२२१
|
२१९८
|
२४०६
|
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ओवी क्रमांक १९९ ते २१०
व्यासमुनिंनी
जैमिनी ह्या तिसऱ्या शिष्याला सामवेदाचा विस्तार कथन केला.
वेद
|
सामवेद
|
उपवेद
|
गांधर्व
|
गोत्र
|
कश्यप
|
दैवत
|
विष्णु
|
छंद
|
जगती
|
सामवेदाचे स्वरुप :- नेहमी
माला धारण करणारा, पांढरे रेशमी वस्त्र पांघरलेला जितेन्द्रिय,
कातडे धारण
केलेला, दंडधारी
डोळे
|
सोनेरी रंगाचे
सूर्यप्रकाशासारखे तेजस्वी,
|
उंची
|
सहा हात (कोपरापासून करंगळीपर्यंतचे अंतर) लांब
|
सामवेदाच्या हजार* शाखा = पतंजली व्याकरण भाष्यामध्यें ‘सहस्रवर्त्मा सामवेद’ असे वचन आहे. परंतु सामवेदाच्या हजारो शाखांची माहिती उपलब्ध नसल्याने , सामवेदाच्या भेदांचे प्रमाण
माहीत नाही, असे ह्या ओवीतून (ओवी क्रमांक २०३) व्यक्त केलेले दिसते.
सामवेदाचे भेद :-
भेद क्रमांक
|
भेदाचे नाव
|
पहिला
|
आसुरायणी
|
दुसरा
|
वासुरायणी
|
तिसरा
|
वार्तांतवेय
|
चौथा
|
प्रांजली
|
पाचवा
|
ऋग्वैनविध
|
सहावा
|
प्राचीनयोग्य
|
सातवा
|
ज्ञानयोग्य
|
आठवा
|
राणायनी
भेदाचे नऊ भेद :-१) ‘राणायनी’ २) ‘शाट्यायनी’ ३) ‘शाट्या मुद्गक’, ४) ‘खल्वला’, ५) ‘महाखल्वा’, ६) ‘लाड्ग.ला’, ७) ‘कौथुमा’, ८) ‘गोतम’, ९) जैमिनी
|
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ओवी क्रमांक २१२ ते २२०
व्यासमुनिंनी ‘सुमंतु’ ह्या चौथ्या शिष्याला अथर्ववेदाचा विस्तार कथन केला.
ह्या
अथर्ववेदाला उपवेद आहे, हे ऐका. ह्यातील ‘शस्त्रशास्त्र’ सिद्धांताचे गोत्र ‘वैतान’ आहे.
अधिदैवत
|
इंद्र
|
छंद
|
अनुष्टुप्
|
रंग
|
प्रखर उग्र भयंकर काळा
|
रूप
|
स्वेच्छारूप, विवाहबंधन मानणारा,
वृक्षासारखा एका जागी स्थिर राहून सर्वांना छाया देणारा
|
कामे
|
हलकी कामे करणारा
{ कोणतेही काम करण्यात कमीपणा न मानणारा }
|
उद्दिष्ट
|
विश्व निर्माण
|
अथर्ववेदाचे ९ भेद पुढीलप्रमाणे :-
पहिला
|
पैप्पलाद
|
दुसरा
|
दांत
|
तिसरा
|
प्रदांत
|
चौथा
|
तौत
|
पाचवा
|
औत
|
सहावा
|
ब्रह्मदपलाश
|
सातवा
|
शौनकी
|
आठवा
|
वेददर्शी
|
नववा
|
चारणविद्या
|
कल्प नावाचे
अथर्ववेदाचे उपग्रंथ :- ’नक्षत्र’,’विधी’,’विधान’,’संहिता’,’शांति’
श्रीगुरुंनी गर्विष्ठ ब्राह्मणांना कथन केलेल्या वेद-विस्तारातून ‘४५० वर्षांपूर्वी उपलब्ध असलेल्या
वेद-विषयक माहितीचे संकलन’ हा अनमोल ठेवा
श्रीगुरुचरित्रकारांनी भावी पिढ्यांच्या हवाली केलेला आहे.
॥श्रीगुरुदेव दत्त॥
श्रीगुरुचरित्र अध्याय २६ प्रकाशित
https://www.shrigurucharitra.com/